Saturday, February 1, 2014

कुछ थोडा दिल से

हफ़्तों से दिल में एक कसक थी लेकिन समयाभाव के कारण पन्ने पर उतारने में असमर्थ रहा आज वक़्त मिला इसलिए कई अनुभवो की सामग्री वापरते हुए........ 

सबसे पहले आज का ही.…… 
आज २६ जनवरी ६५वाँ गणतंत्र दिवस। मेरी आँख खुलती है सुबह के ठीक ७:१५ बजे, कुछ विशेष जैसा अनुभव नहीं होता। पानी पीकर दांत मांजते हुए घर के आँगन में देखता हूँ तो पापा एक तिरंगा लाके मेन गेट पे टांग गए हैं। याद आया कि हाँ आज तो राष्ट्रीय पर्व है लेकिन क्या अब सड़को पर वो देशभक्ति के गीत नहीं बजते जो मेरे दौर में भले ही वर्ष में २ दिन लेकिन सुबह से बजते हुए किसी को थे। तब भी क्रोध नहीं आता था कि चलो २ दिन तो सही.....
पर आज क्या हुआ ? क्या अब वैसे गाने तराने नहीं बजते ? अचरज से मैं माँ से पूछता हूँ लेकिन वह अपने काम में लगी ध्यान नहीं देती।

जाड़ा ज्यादा है इसलिए मैं छत का रुख करता हूँ। मकान ऊंचा है तो मुख्य सड़क दिख जाती है लेकिन ये क्या आज कोई प्रभात फेरी नहीं कोई बच्चो का स्कूल की ओर भागता दल नहीं ? गेंदे और रजनीगंधा के फूलों का श्रृंगार किये नर्तकी बालाए नहीं ?
मैंने सोचा कि चलो भाई परिवर्तन तो जीवन का नियम है मेरे बचपन में ये सब होता था सुबह से स्कूल और सामुदायिक भवन जाने का उत्साह होता था, भाषण देने को लालायित रहता था और लड्डू खाने का लालच। पर ये क्या पड़ोस के बच्चे तो अभी उठे हैं और यहाँ वहाँ ताक रहे हैं। मैंने पूछा क्यूँ जनाब आज छुट्टी मना रहे हो क्या ? तो बच्चा बोला कि हाँ भैय्या आज सन्डे है इसलिये.........
मैंने बोला कि लेकिन आज तो स्कूल में कोई प्रोग्राम होगा वहाँ हिस्सा नहीं ले रहे ? इतने में उसकी बहन बोल पड़ी कि भैय्या सन्डे को नहीं होता तो जरूर जाते और स्कूल जाते कैसे ? ऑटो वाला आता नहीं और पापा सो रहे हैं। बच्ची की जबान में एक टीस दिख रही थी मुझे। मैंने पूछा कि तिरंगा चाहिए ? दोनों दौड़े आये और मेरे हाथ से २ पेपर के तिरंगे ले गए और वंदे मातरम वंदे मातरम कहने लगे।

घर पे भी परिवर्तन था, यूँ तो आज के दिन कुछ विशेष पकवान बनाया जाता था और दूरदर्शन पे आने वाली पिच्चर पे पड़ोस की महिलाओं की बात होती थी पर ये क्या न तो कोई विशेष खाना ? न दूरदर्शन को लेके कहीं कोई उत्साह। सहसा मेरी दृष्टि डिश एंटीना पर पड़ी और याद आया कि अरे हाँ अब तो pay & watch का जमाना है इतने चैनल है फिर कोई दूरदर्शन क्यूँ देखेगा।

टहलते टहलते मुख्य सड़क पे दूध लेने पंहुचा तो देखा कि नेताजी का काफिला चला है शायद नेताजी नदारद हैं बस उनकी पलटन है। अब भाई नेताजी के लौंडे निकले वो भी लोगो को बिना बताये ये तो नेताजी का अपमान होगा वो भी तब जबकि प्रदेश में उनके ही दल की सरकार है। लेकिन उनका पोंगा आज न तो मेरा रंग दे बसंती चोला की तान दे रहा था न ही हम हिन्दुस्तानी कि दहाड़ लगा रहा था। अब आज के लौंडे हैं तो आज की आवाज होगी, है ना ?
गाना था आज दिल है सानी सानी ब्लू है पानी पानी.........

खैर.…… जय हो लोकतंत्र कीं

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