Saturday, July 18, 2009

तोल मोल के बोल

चला न था कभी दुर्गम राह पर क्या कभी
भला आज फिर क्यूँ मेरे पैर कांप रहे हैं
राहें ना ही कभी आसां थीं और ना ही मंजिलें दुष्कर
साँसे चलती थी अरमानों की टोली लेकर
रोम रोम भरा रहता था उत्साह से कभी
आज राहें भी वही हैं पर मंजिलें नई हैं
कर्ता भी वही है पर एक नयापन है
स्वयं को खोजता हुआ चला जा रहा हूँ इस बीहड़ में
अनभिज्ञ होकर आशंकित विजय के नाद में
आज भला क्यूँ मैं खुद को औरों से कमतर आंकता हूँ
क्यूँ मैं क्षण क्षण निज को मायूस सा पाता हूँ
था न तो कल भी कोई साथ मेरे
हूँ आज भी मैं बिलकुल अकेले
पर क्यूँ मैं अब खुद को अधूरा पाता हूँ
सुने उपदेश कुशल बहुतेरे सुनहरे अतीत की यादें संजोये
हर वक्त जहाँ खुद को सफलतम पाता था
आज वहीँ पल पल खुद से ठगा जाता हूँ
कृष्ण की गीता भी खोखली ज्ञात होती है
जानता नहीं क्या है यह समय का फेरा
या फिर सिर्फ मेरे निरुत्साह का बटेरा
हर आशा निराशा होती जाती है
और मेरी यात्रा अधूरी ही धरी रह जाती है

2 comments:

Sapan said...

nice one :)

हरकीरत ' हीर' said...

आज वहीँ पल पल खुद से ठगा जाता हूँ
कृष्ण की गीता भी खोखली ज्ञात होती है
जानता नहीं क्या है यह समय का फेरा
या फिर सिर्फ मेरे निरुत्साह का बटेरा
हर आशा निराशा होती जाती है
और मेरी यात्रा अधूरी ही धरी रह जाती है

उम्मीद है ये पिछले वर्ष की निराशा अब तक मिट चुकी होगी .......
इस बीच आपने नया कुछ डाला नहीं ..... कुछ नया डालिए .....!!

ब्लॉग पर आने का शुक्रिया ......!!